Saturday, October 19, 2019

HIGHWAY HOTEL WITH HINDU NAMES AND CHELIA MUSLIM OWNER, NOT ALLOWING ANY HINDU HOTEL TO RUN IN COMPITITION ... एक खतरनाक बिजनेस मॉडल का पर्दाफाश ...
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आपको राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात के हाइवे पर तमाम ऐसे होटल्स मिलेंगे, जिनका नाम 'आशिर्वाद', 'सहयोग' 'भाग्योदय', 'सर्वोदय', 'अलंकार', 'तुलसी', 'सर्वोत्तम' आदि हिन्दू नाम वाला होगा ..!! लेकिन, इन होटलोंं की चेन, जिसमे हजारो हॉटेल्स है, उन्हें गुजरात के बनासकांठा के रहने वाले 'चेलिया मुस्लिम' " चलाते है ..!!
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इन होटलों में एक भी हिन्दू को नौकरी नही दी जाती .. चेलिया ग्रुप ऑफ़ हॉटेल्स का हेड ऑफिस अहमदाबाद में है । इनकी पूरी खरीद 'सेंट्रलाइज्ड' होती है । ये डायरेक्ट कोल्डड्रिंक, नमकीन आदि बनाने वाली कम्पनीज के साथ 'बल्क' में डील करते हैं .. फिर उसे हर एक होटल में सप्लाई करते है । जहाँ तक सम्भव हो, ये खरीदारी सिर्फ मुस्लिम से ही करते है । इनके होटल्स में इन्वर्टर बैटरी, आर. ओ. पानी आदि सप्लाई करने वाला भी मुस्लिम ही होता है ..।
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चूँकि ये अपने होटल्स का नाम भी हिन्दू नाम जैसा ही रखते है और "ओनली व्हेज" लिखते है । और इनके होटल्स भी साफ सुथरे दिखते है .. इसलिए, हिन्दू इनकी होटल्स की तरफ आकर्षित होते है ..। इनका ये मानना है की, हिन्दुओ से पैसा निकालो और उसे मुस्लिमो के बीच लाओ ..!!
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इनका पूरा बिजनस फ्रेंचाइजी मॉडेल पर आधारित होता है ..। इनकी एक सहकारी कमिटी है, जो अल्पसंख्यक आयोग में, अल्पसंख्यक कमेटी के रूप में रजिस्टर्ड है .. इस कमिटी में, देश विदेश के लाखो चेलिया मुस्लिम्स मेम्बर है और सब अपना अपना योगदान देते है । फिर ये हाइवे पर कोई अच्छा सा जगह देखकर उसे काफी ऊँची कीमत देकर खरीद लेते है । फिर उस हॉटेल का एक खरीदी बिक्री का अकाउंट बनाते है .. और उस हॉटेल को किसी चेलिया मुस्लिम को चलाने के लिए सौंप देते है ..!!
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पुरे विश्व के 'चेलिया मुस्लिम' सिर्फ मुहर्रम में, अपने गाँव में इकठ्ठे होते है । फिर हर एक हॉटेल के लाभ-हानि का हिसाब करते है । इसलिए, मुहर्रम के दौरान, करीब २० दिनों तक, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान के हाइवे पर के 90% हॉटेल्स बंद रहते है ..।
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ये बसों के ड्राइवर को बेहद महंगे गिफ्ट देते है ताकि, ड्राइवर इनके ही हॉटेल पर ही बस रोके ..!!
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अहमदाबाद के सरखेज में इनका बहुत बड़ा सेंट्रलाइज्ड परचेज डिपो है । खुद का आलू प्याज आदि रखने के लिए कोल्ड स्टोरेज है ..। ये सीजन पर सीधे किसानो से, बेहद सस्ते दाम पर आलू प्याज अदरक, आदि खरीद लेते है ..!!
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"इकोनॉमिक्स टाइम्स - अहमदाबाद" में छपे एक रिपोर्ट में, इस चेलिया हॉटेल्स की कुल पूंजी इस समय, करीब 3000 करोड़ रूपये पहुंच चुकी है ..!! और इनकी कुल परिसम्पत्तियों की कीमत, इस समय 10,000 करोड़ रूपये होगी ..।
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हिन्दुओ के जेब से पैसा निकालकर उसे मुसलमानों में बांटने का ये "चेलिया ग्रुप्स ऑफ़ हॉटेल्स" बेहद खतरनाक मॉडल है ..।
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दुःख इस बात का है की अभी तक, हिन्दू लोग चेलिया मुस्लिमो के इस गंदे खेल को नही समझ सके और इनके होटलों में खाना खाकर इन्हें आर्थिक रूप से और मज़बूत करते है ... और फिर येही पैसा आतंकियों को जाता है ..।

इससे बड़ा खतरनाक ये है की ये लोग किसी हिन्दू के हॉटेल को चलने ही नही देते ..।

 Forward to ALL
 ( मुंबई-नासिक हाईवे पर सभी- होटल्स इन मुस्लिम लोगों के हैं हिन्दू नामों से)

कई हिन्दू ऐसे भी डरपोक हैं जो इस मैसेज को फॉरवर्ड भी नहीं करेंगे यही लोग जिम्मेदार हैं मानसिक गुलामी की परंपरा को जिन्दा रखने के में, ऐसे मूर्खों को इग्नोर करें और इस जानकारी को आगे सभी से साझा करने में अपना सहयोग दें

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Wednesday, October 9, 2019

अफसोस-- चार भाई थे ! हरेक का अपना परिवार , अपनी नौकरी, अपनी जिम्मेदारियां थी। केवल परेशानी सबकी एक थी। वह थी उनकी बूढी मां । कोई अपने पास रखने को तैयार नहीं था उन्हें। 80 साल से अधिक आयु , तरह-तरह की बीमारियां, हालत जमीन से उखड़े हुए वृक्ष की सी थी। किसी भी दिन धराशाई हो जाए । किसी वृद्ध आश्रम में रखने पर भी विचार हुआ पर सर्वसम्मति नहीं बनी। कारण था लोक लाज ! लोग क्या कहेंगे? चार चार बेटों के होते हुए मां को वृद्ध आश्रम में रखा! आखिर एक पर्याय निकल आया! चारों में सबसे छोटे की आर्थिक हालत पतली थी। इस पर उसके बेटे को इंजीनियरिंग में एडमिशन के लिए एकमुश्त रकम की जरूरत आ पड़ी। तीनों ने कहा- तुम मां को अपने यहां रखकर उनकी देखभाल करो! इसके बदले हम सब मिलकर तुम्हें ₹50000 देंगे! छोटू ने अपने परिवार के साथ विचार-विमर्श किया! सम्मति मिलने पर मां को अपने घर ले आया! बूढ़ी मां छोटे बेटे के परिवार के साथ रहने लगी! और 40 में दिन स्वर्ग सिधार गई। छोटे ने अपने परिवार के सदस्यों के बीच कहा - अम्मा को तो जाना ही था, थोड़ा और पहले चले जाती तो पूरे 40000 यों के क्यों बचे रहते। अन्य तीन अपने-अपने खेमे में भुनभुनाने लगे । महज 40 दिन के लिए ₹50000 देने पड़े । ऐसा मालूम होता तो हम ही ना रख लेते अपने पास साथ।
पॉश का अपना अपना अर्थ

एक महिला ने अपनी किचन से सभी पुराने बर्तन निकाले। पुराने डिब्बे, प्लास्टिक के डिब्बे,पुराने डोंगे,कटोरियां,प्याले और थालियां आदि। सब कुछ काफी पुराना हो चुका था।
फिर सभी पुराने बर्तन उसने एक कोने में रख दिए और नए लाए हुए बर्तन करीने से रखकर सजा दिए।

बड़ा ही पॉश लग रहा था अब किचन। फिर वो सोचने लगी कि अब ये जूनापुराना सामान भंगारवाले‌ को दे दिया तो समझो हो गया काम।

इतने में उस महिला की कामवाली आ गई। दुपट्टा खोंसकर वो फर्श साफ करने ही वाली थी कि उसकी नजर कोने में पड़े हुए बर्तनों पर गई और बोली- बाप रे! मैडम आज इतने सारे बर्तन घिसने होंगे क्या? और फिर उसका चेहरा जरा तनावग्रस्त हो गया।

महिला बोली-अरी नहीं!ये सब तो भंगारवाले को देने हैं।

कामवाली ने जब ये सुना तो उसकी आंखें एक आशा से चमक उठीं और फिर बोली- मैडम! अगर आपको ऐतराज ना हो तो ये एक पतीला मैं ले लूं?(साथ ही साथ में उसकी आंखों के सामने घर में पड़ा हुआ उसका तलहटी में पतला हुआ और किनारे से चीर पड़ा हुआ इकलौता पतीला नजर आ रहा था)

महिला बोली- अरी एक क्यों! जितने भी उस कोने में रखे हैं, तू वो सब कुछ ले जा। उतना ही पसारा कम होगा।

कामवाली की आंखें फैल गईं- क्या! सब कुछ?
उसे तो जैसे आज अलीबाबा की गुफा ही मिल गई थी।
फिर उसने अपना काम फटाफट खतम किया और सभी पतीले, डिब्बे और प्याले वगैरह सब कुछ थैले में भर लिए और बड़े ही उत्साह से अपने घर के ओर निकली।
आज तो जैसे उसे चार पांव लग गए थे। घर आते ही उसने पानी भी नहीं पिया और सबसे पहले अपना जूना पुराना और टूटने की कगार पर आया हुआ पतीला और टेढ़ा मेढ़ा चमचा वगैरह सब कुछ एक कोने में जमा किया, और फिर अभी लाया हुआ खजाना (बर्तन) ठीक से जमा दिया।
आज उसके एक कमरेवाला किचन का कोना पॉश दिख रहा था।
तभी उसकी नजर अपने जूने पुराने बर्तनों पर पड़ी और फिर खुद से ही बुदबुदाई- अब ये जूना सामान भंगारवाले को दे दिया कि समझो हो गया काम।

तभी दरवाजे पर एक भिखारी पानी मांगता हुआ हाथों की अंजुल करके खड़ा था- मां! पानी दे।

कामवाली उसके हाथों की अंजुल में पानी देने ही जा रही थी कि उसे अपना पुराना पतीला नजर आ गया और फिर उसने वो पतीला भरकर पानी भिखारी को दे दिया।

जब पानी पीकर और तृप्त होकर वो भिखारी बर्तन वापिस करने लगा तो कामवाली बोली- फेंक दो कहीं भी।

वो भिखारी बोला- तुम्हें नहीं चाहिए? क्या मैं रख लूं मेरे पास?

कामवाली बोली- रख लो, और ये बाकी बचे हुए बर्तन भी ले जाओ और फिर उसने जो-जो भी भंगार समझा वो उस भिखारी के झोले में डाल दिया।

वो भिखारी खुश हो गया।
पानी पीने को पतीला और किसी ने खाने को कुछ दिया तो चावल, सब्जी और दाल आदि लेने के लिए अलग-अलग छोटे-बड़े बर्तन, और कभी मन हुआ कि चम्मच से खाये तो एक टेढ़ा मेढ़ा चम्मच भी था।
आज ऊसकी फटी झोली पॉश दिख रही थी।

पाॅश क्या है? सुख किसमें माने, ये हर किसी की परिस्थिति पर अवलंबित होता है।

हमें हमेशा अपने से छोटे को देखकर खुश होना चाहिए कि हमारी स्थिति इससे तो अच्छी है। जबकि हम हमेशा अपनों से बड़ों को देखकर दुखी ही होते हैं और यही हमारे दुख का सबसे बड़ा कारण होता है।

Saturday, October 5, 2019

गुरु का स्थान

एक राजा था. उसे पढने लिखने का बहुत शौक था. एक बार उसने मंत्री-परिषद् के माध्यम से अपने लिए एक शिक्षक की व्यवस्था की. शिक्षक राजा को पढ़ाने के लिए आने लगा. राजा को शिक्षा ग्रहण करते हुए कई महीने बीत गए, मगर राजा को कोई लाभ नहीं हुआ. गुरु तो रोज खूब मेहनत करता थे परन्तु राजा को उस शिक्षा का कोई फ़ायदा नहीं हो रहा था.

राजा बड़ा परेशान, गुरु की प्रतिभा और योग्यता पर सवाल उठाना भी गलत था क्योंकि वो एक बहुत ही प्रसिद्द और योग्य गुरु थे. आखिर में एक दिन रानी ने राजा को सलाह दी कि राजन आप इस सवाल का जवाब गुरु जी से ही पूछ कर देखिये.

राजा ने एक दिन हिम्मत करके गुरूजी के सामने अपनी जिज्ञासा रखी, ” हे गुरुवर , क्षमा कीजियेगा , मैं कई महीनो से आपसे शिक्षा ग्रहण कर रहा हूँ पर मुझे इसका कोई लाभ नहीं हो रहा है. ऐसा क्यों है ?”

गुरु जी ने बड़े ही शांत स्वर में जवाब दिया, ” राजन इसका कारण बहुत ही सीधा सा है…”

” गुरुवर कृपा कर के आप शीघ्र इस प्रश्न का उत्तर दीजिये “, राजा ने विनती की.

गुरूजी ने कहा, “राजन बात बहुत छोटी है परन्तु आप अपने ‘बड़े’ होने के अहंकार के कारण इसे समझ नहीं पा रहे हैं और परेशान और दुखी हैं. माना कि आप एक बहुत बड़े राजा हैं. आप हर दृष्टि से मुझ से पद और प्रतिष्ठा में बड़े हैं परन्तु यहाँ पर आप का और मेरा रिश्ता एक गुरु और शिष्य का है.

गुरु होने के नाते मेरा स्थान आपसे उच्च होना चाहिए, परन्तु आप स्वंय ऊँचे सिंहासन पर बैठते हैं और मुझे अपने से नीचे के आसन पर बैठाते हैं. बस यही एक कारण है जिससे आपको न तो कोई शिक्षा प्राप्त हो रही है और न ही कोई ज्ञान मिल रहा है. आपके राजा होने के कारण मैं आप से यह बात नहीं कह पा रहा था.

कल से अगर आप मुझे ऊँचे आसन पर बैठाएं और स्वंय नीचे बैठें तो कोई कारण नहीं कि आप शिक्षा प्राप्त न कर पायें.”

राजा की समझ में सारी बात आ गई और उसने तुरंत अपनी गलती को स्वीकारा और गुरुवर से उच्च शिक्षा प्राप्त की .

हम रिश्ते-नाते, पद या धन वैभव किसी में भी कितने ही बड़े क्यों न हों हम अगर अपने गुरु को उसका उचित स्थान नहीं देते तो हमारा भला होना मुश्किल है. और यहाँ स्थान का अर्थ सिर्फ ऊँचा या नीचे बैठने से नहीं है , इसका सही अर्थ है कि हम अपने मन में गुरु को क्या स्थान दे रहे हैं।

क्या हम सही मायने में उनको सम्मान दे रहे हैं या स्वयं के ही श्रेस्ठ होने का घमंड कर रहे हैं ? अगर हम अपने गुरु या शिक्षक के प्रति हेय भावना रखेंगे तो हमें उनकी योग्यताओं एवं अच्छाइयों का कोई लाभ नहीं मिलने वाला और अगर हम उनका आदर करेंगे, उन्हें महत्व देंगे तो उनका आशीर्वाद हमें सहज ही प्राप्त होगा
भगवान की खोज !

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तेरहवीं सदी में महाराष्ट्र में एक प्रसिद्द संत हुए संत नामदेव। कहा जाता है कि जब वे बहुत छोटे थे तभी से भगवान की भक्ति में डूबे रहते थे। बाल -काल में ही एक बार उनकी माता ने उन्हें भगवान विठोबा को प्रसाद चढाने के लिए दिया तो वे उसे लेकर मंदिर पहुंचे और उनके हठ के आगे भगवान को स्वयं प्रसाद ग्रहण करने आना पड़ा।  आज हम उसी महान संत से सम्बंधित एक प्रेरक प्रसंग आपसे साझा कर रहे हैं।

एक बार संत नामदेव अपने शिष्यों को ज्ञान -भक्ति का प्रवचन दे रहे थे। तभी श्रोताओं में बैठे किसी शिष्य ने एक प्रश्न किया , ” गुरुवर , हमें बताया जाता है कि ईश्वर हर जगह मौजूद है , पर यदि ऐसा है तो वो हमें कभी दिखाई क्यों नहीं देता , हम कैसे मान लें कि वो सचमुच है , और यदि वो है तो हम उसे कैसे प्राप्त कर सकते हैं ?”

 नामदेव मुस्कुराये और एक शिष्य को एक लोटा पानी और थोड़ा सा नमक लाने का आदेश दिया।

शिष्य तुरंत दोनों चीजें लेकर आ गया।

वहां बैठे शिष्य सोच रहे थे कि भला इन चीजों का प्रश्न से क्या सम्बन्ध , तभी संत नामदेव ने पुनः उस शिष्य से कहा , ” पुत्र , तुम नमक को लोटे में डाल कर मिला दो। “

शिष्य ने ठीक वैसा ही किया।

संत बोले , ” बताइये , क्या इस पानी में किसी को नमक दिखाई दे रहा है ?”

सबने  ‘नहीं ‘ में सिर हिला दिए।

“ठीक है !, अब कोई ज़रा इसे चख कर देखे , क्या चखने पर नमक का स्वाद आ रहा है ?”, संत ने पुछा।

“जी ” , एक शिष्य पानी चखते हुए बोला।

“अच्छा , अब जरा इस पानी को कुछ देर उबालो।”, संत ने निर्देश दिया।

कुछ देर तक पानी उबलता रहा और जब सारा पानी भाप बन कर उड़ गया , तो संत ने पुनः शिष्यों को लोटे में देखने को कहा और पुछा , ” क्या अब आपको इसमें कुछ दिखाई दे रहा है ?”

“जी , हमें नमक के कण दिख रहे हैं।”, एक शिष्य बोला।

संत मुस्कुराये और समझाते हुए बोले ,” जिस प्रकार तुम पानी में नमक का स्वाद तो अनुभव कर पाये पर उसे देख नहीं पाये उसी प्रकार इस जग में तुम्हे ईश्वर हर जगह दिखाई नहीं देता पर तुम उसे अनुभव कर सकते हो। और जिस तरह अग्नि के ताप से पानी भाप बन कर उड़ गया और नमक दिखाई देने लगा उसी प्रकार तुम भक्ति ,ध्यान और सत्कर्म द्वारा अपने विकारों का अंत कर भगवान को प्राप्त कर सकते हो।”

   🌹🙏🏻🚩 जय सियाराम 🚩🙏🏻🌹
      🚩🙏🏻 जय श्री महाकाल 🙏🏻🚩
    🌹🙏🏻 जय श्री पेड़ा हनुमान 🙏🏻🌹
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बचपन के उस स्कूली दौर में निब पेन का चलन जोरो पे था। बॉलपेन से लिखने वालों को तो हेय दृष्टि से देखा जाता था। मासाब भी निब पेन वालों को आगे की पंक्तियों में स्थान देकर सम्मानित करते थे।
चूंकि उस समय भैया प्रदत्त दो निब पेन मेरे पास थे तो इस विशेष योग्यता के कारण मुझे मॉनिटर का पद भी प्राप्त हुआ था।
*उस समय कैमल और चेलपार्क की ब्लू या ब्लैक या फिर ब्लू-ब्लैक स्याही प्रायः हर घर बड़े आले में रखी मिल ही जाती थी और लाल रंग की स्याही घर मे शान का प्रतीक थी*
और
जिन्होंने भी पेन में स्याही डाली होगी वो ड्रॉपर के महत्व से भली भांति परिचित होंगे,
*तब महीने में दो-तीन बार निब पेन को गरम पानी में डालकर उसकी सर्विसिंग भी की जाती थी,*
तब लगता था की निब को उल्टा कर के लिखने से हैंडराइटिंग बड़ी सुन्दर बनती है, और हर क्लास में मेरे जैसा एक ऐसा एक्सपर्ट जरूर होता था जो सभी (खास-तौर पर लड़कियों) की पेन ठीक से नहीं चलने पे ब्लेड लेकर निब के बीच वाले हिस्से में बारिकी से कचरा निकालने का दावा करके अपनी धाक जमाने का प्रयास करता था, ये अलग बात है कि मेरी लालबुझक्कड़ी धाक कभी नही जम पायी।
दुकान में *नयी निब खरीदने से पहले उसे पेन में लगाकर सेट करना फिर कागज़ में स्याही की कुछ बूंदे छिड़क कर निब उन गिरी हुयी स्याही की बूंदो पे लगाकर निब की स्याही सोखने की क्षमता नापना ही किसी बड़े साइंटिस्ट वाली फीलिंग दे जाता था,*
निब पेन कभी ना चले तो हम में से सभी ने हाथ से झटका के देखने के चक्कर में आजू बाजू वालो पे स्याही जरूर छिड़कायी होगी,
मेरे कुछ मित्र ऐसे भी होते थे जो पढ़ते लिखते तो कुछ नहीं थे लेकिन घर जाने से पहले उंगलियो में स्याही जरूर लगा लेते थे, ताकि *घरवालो को लगे कि बच्चा स्कूल में बहुत मेहनत करता है,*
उसी दौर में अपने बाजू की सीट पे एक न्यू एडमिशन सुन्दर सी लड़की आई,
लेकिन जैसे ही उसने "हीरो" की फाउंटेन पेन अपने बैग से निकाली, अपना बच्चा सा दिल छन से आवाज़ करके टूट गया
*कहाँ वो साठ रूपये वाले "हीरो" के पेन से लिखने वाला राजकुमारी और कहाँ अपन दो रूपये वाली कैमल की पेन से लिखने वाले देसी लड़के,*
दिल तो पूरा टूट ही जाता
किन्तु तभी हमारे गुरु जी ने मेरी मनःस्थिति भाँप कर सिखाया- कि _महँगी पेन खरीदना अच्छी आर्थिक स्थिति का सूचक है लेकिन पेन से सुन्दर हैंडराइटिंग बनाना टैलेंट,_
और *टैलेंट कभी भी पैसो से नहीं ख़रीदा जा सकता, तब जाकर मुझे कुछ राहत मिली।*
ऐसी अनगिनत यादों के साथ बालपन की पुनः यादें मुबारक।