एक बार सब्जी मण्ड़ी में देखा कमाल,
सब्जियाँ कर रहीं थी बातें बाहों में बाहें ड़ाल।
आलु बोला टमाटर से, अरे—नहीं तेरी कोई मिसाल,
चिकनी, सुन्दर त्वचा तुम्हारी रंग भी है लाल-लाल।
टमाटर ने नाक सिकोड़ी, बोली, ओ मिट्टी के लाल,
पहले जा के देख आईना फिर मुझपे ड़ोरे ड़ाल।
आलु ने चुटकी ली बोला क्या है अदा तुम्हारी,
हर सब्जी का स्वाद बढ़ाती आज मेरी है बारी।
कोई मनचला हम दोनों को ले अपने घर को जायेगा,
मुझको धोकर तुमसे मिला कर सब्जी कोई बनायेगा।
एक बर्तन में तुम्हारे संग खूब करुंगा रोमांस,
यहां उछल कर, वहां कूद कर करेंगे फिल्मी ड़ांस।
बगल में बैठा करेला खुजली कर, हो रहा था तंग,
भिंड़ी बोली अरे करेले ये कैसी है जंग।
बोला करेला, अरे बहना मेरा तो कब का जनाज़ा उठा,
मुझे सुखाकर दवा मिलाई इसलिए दिखता हूं ताजा।
मुझ पर जो कुछ बीती मैं तो झेल जाउंगा,
पर क्या बीतेगी सेहत पर जिसकी थाली में आउंगा।
नैनुआ कर रहा कानाफूसी देख-देख कर लौकी,
हम जहां के तहां रह गये पर इसकी किस्मत चमकी।
जब से बाबा रामदेव बने हैं इसके ब्रांड़ एमबैस्ड़र,
इसके सामने खड़े होने से भी हमें लगे है ड़र।
जब भी कोई बुजुर्ग आदमी हमारी तरफ है आता,
हाथ बढ़ा कर इसे उठाता , पोते सा इसे खिलाता,
इसकी कीमत कुछ भी बोलो झट से नोट थमाता,
हमें लेकर अहसान जताता पैसे भी कम कराता
प्याज़ रो रहा फफक-फफक कर अपनी छाती पीट,
कहा—कुछ रिश्वत खोरो ने मुझे किया है चीट।
मुझे निकाला ड़िब्बों में ड़ाला बाहर किया एक्सपोर्ट,
अपने घर के लोग तरसते पर ये कमाएं नोट।
यहीं नहीं खत्म होता मुझ पर अत्याचार,
मुझे लेकर करें राजनीति, बदल देते सरकार।
वो दिन दूर नहीं जब मैं पूरी तरह मिट जाउंगा,
मेरा पुतला लगेगा नुक्कड़ पे मैं शहीद कहलाउंगा।
बैंगन बोला एक समय था जब हर कोई यहां था आता,
चंद नोट दे थैला भरता खुशी-खुशी घर जाता।
आज महंगाई का ड़ंड़ा, ऐसा हवा में है लहराया,
आम आदमी सब्जी भूला मन उसका घबराया।
सब्जियोँ का दाम जानकर उसका निकले पसीना,
चार की जगह दो सब्जियोँ में उसने सीखा जीना।
एक समय था लोगों को मेरे नाम से थी एलर्जी,
मुझे भी लेकर बड़ी शान से अपने घर को जाते,
बड़े चाव से मुझे बनाते फिर मिल-बांट कर खाते,
हरे रंग की टोकरी में नारंगी हो रही थी खुश,
मन-ही-मन मुस्काती सबको देती स्वीट लुक।
सेब बोला, अरे अनार इसका क्यो भागे है मीटर,
लगता है इसपे भी छ गया है कोई ‘फील गुड़ फैक्टर’।
नहीं पता इसे शायद कि कभी ऐसा हो जायेगा,
’गुड़’ निकल कर दूर भागे, केवल फील रह जायेगा,
फील-फील करता ये घूमे यहां-वहां चिल्लायेगा,
गुड़ की तलाश में फिर खेल नया दिखलायेगा।
सब्जियोँ की बातें सुन, मैं तो रह गया दंग,
हम ही नहीं लड़ते इक दूजे से, इनमें भी छिड़ी है जंग।
ये कैसा समय आ गया, सोचे है ‘राजीव’,
आपस की लड़ाई में पिसता जा रहा हर जीव।
सब्जियाँ कर रहीं थी बातें बाहों में बाहें ड़ाल।
आलु बोला टमाटर से, अरे—नहीं तेरी कोई मिसाल,
चिकनी, सुन्दर त्वचा तुम्हारी रंग भी है लाल-लाल।
टमाटर ने नाक सिकोड़ी, बोली, ओ मिट्टी के लाल,
पहले जा के देख आईना फिर मुझपे ड़ोरे ड़ाल।
आलु ने चुटकी ली बोला क्या है अदा तुम्हारी,
हर सब्जी का स्वाद बढ़ाती आज मेरी है बारी।
कोई मनचला हम दोनों को ले अपने घर को जायेगा,
मुझको धोकर तुमसे मिला कर सब्जी कोई बनायेगा।
एक बर्तन में तुम्हारे संग खूब करुंगा रोमांस,
यहां उछल कर, वहां कूद कर करेंगे फिल्मी ड़ांस।
बगल में बैठा करेला खुजली कर, हो रहा था तंग,
भिंड़ी बोली अरे करेले ये कैसी है जंग।
बोला करेला, अरे बहना मेरा तो कब का जनाज़ा उठा,
मुझे सुखाकर दवा मिलाई इसलिए दिखता हूं ताजा।
मुझ पर जो कुछ बीती मैं तो झेल जाउंगा,
पर क्या बीतेगी सेहत पर जिसकी थाली में आउंगा।
नैनुआ कर रहा कानाफूसी देख-देख कर लौकी,
हम जहां के तहां रह गये पर इसकी किस्मत चमकी।
जब से बाबा रामदेव बने हैं इसके ब्रांड़ एमबैस्ड़र,
इसके सामने खड़े होने से भी हमें लगे है ड़र।
जब भी कोई बुजुर्ग आदमी हमारी तरफ है आता,
हाथ बढ़ा कर इसे उठाता , पोते सा इसे खिलाता,
इसकी कीमत कुछ भी बोलो झट से नोट थमाता,
हमें लेकर अहसान जताता पैसे भी कम कराता
प्याज़ रो रहा फफक-फफक कर अपनी छाती पीट,
कहा—कुछ रिश्वत खोरो ने मुझे किया है चीट।
मुझे निकाला ड़िब्बों में ड़ाला बाहर किया एक्सपोर्ट,
अपने घर के लोग तरसते पर ये कमाएं नोट।
यहीं नहीं खत्म होता मुझ पर अत्याचार,
मुझे लेकर करें राजनीति, बदल देते सरकार।
वो दिन दूर नहीं जब मैं पूरी तरह मिट जाउंगा,
मेरा पुतला लगेगा नुक्कड़ पे मैं शहीद कहलाउंगा।
बैंगन बोला एक समय था जब हर कोई यहां था आता,
चंद नोट दे थैला भरता खुशी-खुशी घर जाता।
आज महंगाई का ड़ंड़ा, ऐसा हवा में है लहराया,
आम आदमी सब्जी भूला मन उसका घबराया।
सब्जियोँ का दाम जानकर उसका निकले पसीना,
चार की जगह दो सब्जियोँ में उसने सीखा जीना।
एक समय था लोगों को मेरे नाम से थी एलर्जी,
मुझे भी लेकर बड़ी शान से अपने घर को जाते,
बड़े चाव से मुझे बनाते फिर मिल-बांट कर खाते,
हरे रंग की टोकरी में नारंगी हो रही थी खुश,
मन-ही-मन मुस्काती सबको देती स्वीट लुक।
सेब बोला, अरे अनार इसका क्यो भागे है मीटर,
लगता है इसपे भी छ गया है कोई ‘फील गुड़ फैक्टर’।
नहीं पता इसे शायद कि कभी ऐसा हो जायेगा,
’गुड़’ निकल कर दूर भागे, केवल फील रह जायेगा,
फील-फील करता ये घूमे यहां-वहां चिल्लायेगा,
गुड़ की तलाश में फिर खेल नया दिखलायेगा।
सब्जियोँ की बातें सुन, मैं तो रह गया दंग,
हम ही नहीं लड़ते इक दूजे से, इनमें भी छिड़ी है जंग।
ये कैसा समय आ गया, सोचे है ‘राजीव’,
आपस की लड़ाई में पिसता जा रहा हर जीव।
No comments:
Post a Comment